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Wednesday, October 24, 2007

फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़िराक़ गोरखपुरी - मैं उन चंद ख़ुश किस्मतों में हूँ जिन्होंने फ़िराक़ साहब को देखा भी था . और उन्हें बोलते हुए सुना भी था. इसका एहसास आज मेरी तरह उन सबको है जो अतीत में इस क़ीमती तजुर्बे से गुजर चुके हैं. पेशे से शायर न होते हुए भी मेरा जन्म उस जमींदार परिवार में हुआ था जो शायरी के कद्र्दान थे. गोरखपुर मेरा ननिहाल और बस्ती पिता के घर बचपन से मुशायरा और शायरो की मजलिस आज भी ज़हन में ताज़ा है .
फ़िराक़ की शायरी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
उनकी इस अज़मत का राज़ उस रिश्ते से है, जो गोरखपुर के एक कामयाब वकील मुंशी गोरख प्रसाद के घर पैदा होने के कारण उन्हें विरासत में मिला था.
फ़िराक़ ने पहली बार इस अज़ीम विरासत को अपने शब्दों की अजमत बनाया है और हुस्नो-इश्क़ की दुनिया में नए ज़मीन-आसमान को दर्शाया है.

फ़िराक़ गोरखपुरी 1896 में पैदा हुए. तालीम इलाहाबाद में पूरी की. कुछ साल पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया. जेल भी गए. बाद में इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के स्टाफ़ में शरीक हुए और यहीं से 1959 में रिटायर होकर निरालाजी के नगर इलाहाबाद के इतिहास का हिस्सा बन गए.
1896 से 1982 तक की इस जीवन-यात्रा में फ़िराक़ ने अपने पैरों से चलकर अपनी आँखों से देखकर पूरा किया. अपनी ज़िदंगी को उन्होंने अपनी शर्तों पर जिया. इन शर्तों के कारण वह परेशान भी रहे.
इन आए दिन की परेशानियों ने उनकी रातों की नींदे छीन लीं. परिवार होते हुए अकेला रहने पर मजबूर किया, एक मुसलसल तन्हाई को उनका मुक़द्दर बना दिया. लेकिन इन सबके बावजूद वह ज़िंदगी भरते और हक़ीक़तों में ख्वाबों के रंग भरते रहे, फ़िराक़ साहब को इश्क़ और मुहब्बत का शायर कहा जाता है.
लेकिन इश्क़ और मुहब्बत के शायर की ज़िंदगी में इन्हीं की सबसे ज़्यादा कमी थी. फ़िराक़ ने इस कमी या अभाव को अपनी शायरी की ताक़त बनाया है और वह कर दिखाया है जो आज भारतीय साहित्य का सरमाया है.
फ़िराक़ साहब बड़े शायर थे लेकिन निजी जीवन में उनके विचार पुरुष-प्रधान समाज की ग्रंथियों से मुक्त नहीं थे...शायद उनकी इसी कमज़ोरी ने उनकी गज़लों और रूबाइयों में वह स्त्री रूप उभारा है. जो उनसे पहले उर्दू शायरी में इतनी नर्मी और सौंदर्य के साथ कहीं नज़र नहीं आता है...
फ़िराक़ साहब ने ख़ुद लिखा है- "18 वर्ष की उम्र में मेरी शादी कर दी गई, मेरी बीवी की शक्लो सूरत वही थी, जो उन लोगों की थी, जिनसे मैं बचपन में भी दूर रहता था. वह अनपढ़ थी. इस शादी ने मेरी ज़िंदगी को एक ज़िंदा मौत बनाकर रख दिया."
ज़िंदगी में जो एक कमी सी है. यह ज़रा सी कमी बहुत है मियाँ. ये अंदाज़ थे फ़िराक़ साहब के .....
ग़ालिब ने बीवी होते हुए एक डोमनी को अपनाया और फ़िराक़ ने पत्नी को छोड़कर ख़्वाब सजाया- लेकिन दोनों की निजी कमज़ोरियों ने उनकी शायरी को नुक़सान नहीं पहुँचाया. फ़िराक़ की यही हुनरमंदी उनके बड़े होने की अलामत है.

1 comment:

हरीश करमचंदाणी said...

इतना समृद्ध जखीरा हैं आपके पास तो ,कैफ़ी आज़मी साहब ,फिराक साहब की नायाब रचनाओ के लिए शुक्रिया ;यह सिलसिला जारी रखियेगा