Monday, March 9, 2015
Saturday, June 16, 2012
Tuesday, October 12, 2010
नवरात्रि - मौसम और जीवन में बदलाव की घड़ी
हिन्दू पंचांग के आश्विन माह की नवरात्रि शारदीय नवरात्रि कहलाती है। विज्ञान की दृष्टि से शारदीय नवरात्र में शरद ऋतु में दिन छोटे होने लगते हैं और रात्रि बड़ी। वहीं चैत्र नवरात्र में दिन बड़े होने लगते हैं और रात्रि घटती है, ऋतुओं के परिवर्तन काल का असर मानव जीवन पर न पड़े, इसीलिए साधना के बहाने हमारे ऋषि-मुनियों ने इन नौ दिनों में उपवास का विधान किया।
संभवत: इसीलिए कि ऋतु के बदलाव के इस काल में मनुष्य खान-पान के संयम और श्रेष्ठ आध्यात्मिक चिंतन कर स्वयं को भीतर से सबल बना सके, ताकि मौसम के बदलाव का असर हम पर न पड़े। इसीलिए इसे शक्ति की आराधना का पर्व भी कहा गया। यही कारण है कि भिन्न स्वरूपों में इसी अवधि में जगत जननी की आराधना-उपासना की जाती है।
नवरात्रि पर्व के समय प्राकृतिक सौंदर्य भी बढ़ जाता है। ऐसा लगता है जैसे ईश्वर का साक्षात् रूप यही है। प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ वातावरण सुखद होता है। आश्विन मास में मौसम में न अधिक ठंड रहती है न अधिक गर्मी। प्रकृति का यह रूप सभी के मन को उत्साहित कर देता है । जिससे नवरात्रि का समय शक्ति साधकों के लिए अनुकूल हो जाता है। तब नियमपूर्वक साधना व अनुष्ठान करते हैं, व्रत-उपवास, हवन और नियम-संयम से उनकी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्ति जागती है, जो उनको ऊर्जावान बनाती है।
इस काल में लौकिक उत्सव के साथ ही प्राकृतिक रूप से ऋतु परिवर्तन होता है। शरद ऋतु की शुरुआत होती है, बारिश का मौसम बिदा होने लगता है। इस कारण बना सुखद वातावरण यह संदेश देता है कि जीवन के संघर्ष और बीते समय की असफलताओं को पीछें छोड़ मानसिक रूप से सशक्त एवं ऊर्जावान बनकर नई आशा और उम्मीदों के साथ आगे बढ़े।
Tuesday, May 18, 2010
उनकी शादी में जब बैन्डबाजे वालों ने उन्ही की फ़िल्म की धुन बजाई
ये हिंदी फ़िल्मों का वो जमाना था कि जब मूक फ़िल्में लगती थीं तो परदे की बगल में बैठकर दृश्य की भावनाओं के अनुरूप साजिंदे साज़ बजाया करते थे. यह नौशाद साहब के बचपन के दिन थे. अन्य स्थानीय संगीतकारों के साथ लखनऊ के रॉयल सिनेमा हाल में लड्डन मियाँ हारमोनियम बजाते थे. यहीं से नौशाद साहब का संगीत प्रेम परवान चढ़ा. जो आख़िर जुनून तक जा पहुँचा.
इस जुनून की असली शुरूआत तो बाराबंकी क़स्बे के शरीफ़ दरगाह के उर्स के साथ हुई थी जहाँ उन्होंने सूफ़ी फक़ीर बाबा रशीद खां को बांसुरी बजा-बजा के गाते सुना था.
घर लौटे तो मोहल्ले की संगीत-साज़ों की एक दुक़ान में साफ-सफ़ाई करने की नौकरी कर ली. संगीत के प्रति उनकी लगन देखकर दुकान के मालिक ग़ुरबत अली ने एक हारमोनियम उन्हें दे दिया.
एक रिवायती परिवार में जन्में नौशाद के घर मे गीत-संगीत को लेकर कड़ा ऐतराज था। उनके अब्बा संगीत वगैरह के सख़्त विरोधी थे. उन्होंने वो हारमोनियम घसियारी मंडी वाले घर की पहली मंजिल से मोहल्ले की गली में उठाकर फेंक दिया. लेकिन संगीत से उनका प्रेम दिन पर दिन परवान चढ़ता गया, शुरुआती संघर्ष पूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।
आखिर 18 बरस की उम्र में नौशाद साहब घर छोड़ कर बम्बई पहुँचे और संगीत की दुनिया में उनका संघर्षशील सफ़र शुरू हुआ. नौशाद जब लखनऊ से भागकर मुम्बई पहुंचे थे तो उन्हे शुरुआती रातें ब्रॉडवे थिएटर के बाहर फुटपाथ पर बिताने पड़े थे,बाद मे इसी थिएटर मे उनकी कई फिल्मों ने सिलवर जुबली मनाई। चालीस के दशक में प्रेम नगर फिल्म से करियर की शुरुआत करने वाले नौशाद ने बहुत जल्दी ही अपने हुनर का लोहा मनवा लिया और फिर जो एक के बाद एक मधुर धुनो का जो सिलसिला चला तो कहां तक याद किया जाए. 'रतन' फ़िल्म से लेकर 'मुगले आज़म' तक और उसके बाद हिंदी फ़िल्मों के संगीत का पूरा सफ़र एक तरह से नौशाद साहब के संगीत का ही सुरीला सफ़र है.
क्या इस ऐतिहासिक सत्य को कभी भुलाया जा सकता है कि अमर गायक कंदुनलाल सहगल ने अपना अंतिम अमर गीत ‘जब दिल ही टूट गया अब जी कर क्या करेंगे’ गाया था, उसे नौशाद साहब द्वारा ही संगीतबद्ध किया गया था.
एक मजेदार प्रसंग जो आज भी लखनऊ में चर्चित है वो ये कि नौशाद साहब की जब शादी हुई तो वो भी लखनऊ के ही एक संगीतविरोधी घराने में. इसलिए ससुराल वालों को बताया गया था कि बम्बई में वे दर्जी की दुकान चलाते हैं.
शादी के समय तक उनकी कामयाब फ़िल्म ‘रतन’ आ चुकी थी और उसके गाने लोगों की जुबान पर थे. जब नौशाद साहब की बारात चली तो बैंडवाले जो धुनें वे बजा रहे हैं वो नौशाद मियाँ की ‘रतन’ फ़िल्म की ही धुनें हैं.
नौशाद साहब की मौसीक़ी से उनकी फ़िलमों से और उनके नग़मों से तो सब वाक़िफ़ हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि वो एक अच्छे शायर और कहानीकार भी थे। दिलीप कुमार, नरगिस और निम्मी अभिनीत मशहूर फ़िल्म ‘दीदार’ की कहानी उन्होंने ही लिखी थी. ‘बैजूबावरा’ पर फ़िल्म बनाने का मुख्य विचार और प्लॉट उन्हीं का था.
उन्होंने कम लिखा है लेकिन बहुत ख़ूब लिखा है। कभी-कभी वो मुशायरों में शिरकत भी कर लिया करते थे। उनकी शायरी की पुस्तक ‘आठवाँ सुर’ प्रकाशित भी हुई थी.
'ये कौन खुली अपनी दुकाँ छोड़ गया है'...अपने एक शेर में ऐसा कहने वाले जाने-माने संगीतकार नौशाद पाँच मई 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए.
नौशाद उन संगीतकारों की कड़ी के शायद आख़िरी स्तंभ थे जिनकी धुनें हमेशा मौलिक रहीं. उन पर कभी किसी की नक़ल करने का ठप्पा नहीं लगा. पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया
मुलाहिज़ा फ़रमाइये उनकी लिखी ग़ज़लों के अशाअर:
दुनिया कहीं बनती मिटती ज़रूर है
परदे के पीछे कोई न कोई ज़रूर है
जाते हैं लोग जा के फ़िर आते नहीं कभी
दीवार के उधर कोई बस्ती ज़रूर है
मुमकिन नहीं कि दर्द - ए - मुहब्बत अयाँ न हो
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है
ये जानते हुए कि पिघलना है रात भर
ये शमा का जिगर है कि जलती ज़रूर है
नागिन ही जानिए इसे दुनिया है जिसका नाम
लाख आस्तीं मे पालिये डसती ज़रूर है
जाँ देके भी ख़रीदो तो दुनिया न आए हाथ
ये मुश्त - ए - ख़ाक कहने को सस्ती ज़रूर है
नौशाद झुक के मिल गई कि बड़ाई इसी में है
जो शाख़-ए-गुल हरी हो लचकती ज़रूर है
----------------------------------------
ये कौन मेरे घर आया था
जो दर्द का तोहफ़ा लाया था
कुछ फ़ूल भी थे उन हाथों में
कुछ पत्थर भी ले आया था
अंधियारा रोशन रोशन है
ये किसने दीप जलाया था
अब तक है जो मेरे होंठों पर
ये गीत उसी ने गाया था
फ़ैला दिया दामन फ़ूलों ने
वो ऐसी ख़ुश्बू लाया था
नौशाद के सर पे धूप में भी
उसके दामन का साया था.
--------------------------------------
और ये रहे चंद शे’र.....
अच्छी नहीं नज़ाकते एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
बस एक ख़ामोशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िन्दगी से सवालात कीजिये
नौशाद उनकी बज़्म में हम भी गए थे आज
कैसे बचें हैं जानो-जिगर तुमसे क्या कहें
ये गीत नए सुनकर तुम नाच उठे तो क्या
जिस गीत पे दिल झूमा वो गीत पुराना था.
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मेरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सेराब हो के शाद न हो रेहरवान-ए-शौक़
रस्ते में तश्नगी का समन्दर भी आएगा
दैर-ओ-हरम मे खाक उड़ाते चले चलो
तुम जिसकी जुस्तुजू में हो वो दर भी आएगा
बैठा हूँ कब से कूंचा-एक़ातिल में सरनिगूँ
क़ातिल के हाथ में कभी खंजर भी आएगा
सरशार हो के जा चुके यारान-ए-मयकदा
साक़ी हमारे नाम का साग़र भी आएगा
2. पहले तो डर लगा मुझे खुद अपनी चाप से
फिर रो दिया मैं मिल के गले अपने आप से
थी बात ही कुछ ऐसी कि दीवाना हो गया
दीवाना वरना बनता है कौन अपने आप से
रहता है अब हरीफ़ ही बनकर तमाम उम्र
क्या फ़ायदा है यार फिर एसे मिलाप से
आया इधर ख्याल उधर मेहव हो गया
कहने को था न जाने अभी क्या मैं आप से
हम और लगाएँगे पड़ोसी के घर में आग
भगवान ही बचाए हमें ऎसे पाप से
नौशाद रात कैसी थी वो महफ़िल-ए-तरब
लगती थी दिल पे चोट सी तबले की थाप से
...नौशाद साहब लखनऊ से बहुत प्यार करते थे ,जब अन्तिम बार लखनऊ आए थे, तो यहाँ बहुत कुछ बदला-बदला सा पाया था ,फिर भी अपने शहर की शान में एक ग़ज़ल कह गए थे-
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है,
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है ।
क्या जाने क्यों उड़ गए पंछी पेड़ों से,
भरी बहारों में गुलशन वीराना है ।
सारी बस्ती चुप की गर्द में डूब गयी,
शिकवा जो करता है वह दीवाना है ।
मेरी मंजिल शहर ऐ वफ़ा से आगे है,
तुमको तो दो चार कदम ही जाना है।
आपका दामन कल तक मेरा दामन था,
आज वह दिन ख्वाब है या अफसाना है।
रिंद जहाँ सब एक जाम से पीते थे ,
आज न वो मैख्वार न वो मैखाना है ।
आओ पहला जाम पियें नौशाद के नाम ,
जिसने ज़हर के घूँट को अमृत जाना है ..... ॥
ये हिंदी फ़िल्मों का वो जमाना था कि जब मूक फ़िल्में लगती थीं तो परदे की बगल में बैठकर दृश्य की भावनाओं के अनुरूप साजिंदे साज़ बजाया करते थे. यह नौशाद साहब के बचपन के दिन थे. अन्य स्थानीय संगीतकारों के साथ लखनऊ के रॉयल सिनेमा हाल में लड्डन मियाँ हारमोनियम बजाते थे. यहीं से नौशाद साहब का संगीत प्रेम परवान चढ़ा. जो आख़िर जुनून तक जा पहुँचा.
इस जुनून की असली शुरूआत तो बाराबंकी क़स्बे के शरीफ़ दरगाह के उर्स के साथ हुई थी जहाँ उन्होंने सूफ़ी फक़ीर बाबा रशीद खां को बांसुरी बजा-बजा के गाते सुना था.
घर लौटे तो मोहल्ले की संगीत-साज़ों की एक दुक़ान में साफ-सफ़ाई करने की नौकरी कर ली. संगीत के प्रति उनकी लगन देखकर दुकान के मालिक ग़ुरबत अली ने एक हारमोनियम उन्हें दे दिया.
एक रिवायती परिवार में जन्में नौशाद के घर मे गीत-संगीत को लेकर कड़ा ऐतराज था। उनके अब्बा संगीत वगैरह के सख़्त विरोधी थे. उन्होंने वो हारमोनियम घसियारी मंडी वाले घर की पहली मंजिल से मोहल्ले की गली में उठाकर फेंक दिया. लेकिन संगीत से उनका प्रेम दिन पर दिन परवान चढ़ता गया, शुरुआती संघर्ष पूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।
आखिर 18 बरस की उम्र में नौशाद साहब घर छोड़ कर बम्बई पहुँचे और संगीत की दुनिया में उनका संघर्षशील सफ़र शुरू हुआ. नौशाद जब लखनऊ से भागकर मुम्बई पहुंचे थे तो उन्हे शुरुआती रातें ब्रॉडवे थिएटर के बाहर फुटपाथ पर बिताने पड़े थे,बाद मे इसी थिएटर मे उनकी कई फिल्मों ने सिलवर जुबली मनाई। चालीस के दशक में प्रेम नगर फिल्म से करियर की शुरुआत करने वाले नौशाद ने बहुत जल्दी ही अपने हुनर का लोहा मनवा लिया और फिर जो एक के बाद एक मधुर धुनो का जो सिलसिला चला तो कहां तक याद किया जाए. 'रतन' फ़िल्म से लेकर 'मुगले आज़म' तक और उसके बाद हिंदी फ़िल्मों के संगीत का पूरा सफ़र एक तरह से नौशाद साहब के संगीत का ही सुरीला सफ़र है.
क्या इस ऐतिहासिक सत्य को कभी भुलाया जा सकता है कि अमर गायक कंदुनलाल सहगल ने अपना अंतिम अमर गीत ‘जब दिल ही टूट गया अब जी कर क्या करेंगे’ गाया था, उसे नौशाद साहब द्वारा ही संगीतबद्ध किया गया था.
एक मजेदार प्रसंग जो आज भी लखनऊ में चर्चित है वो ये कि नौशाद साहब की जब शादी हुई तो वो भी लखनऊ के ही एक संगीतविरोधी घराने में. इसलिए ससुराल वालों को बताया गया था कि बम्बई में वे दर्जी की दुकान चलाते हैं.
शादी के समय तक उनकी कामयाब फ़िल्म ‘रतन’ आ चुकी थी और उसके गाने लोगों की जुबान पर थे. जब नौशाद साहब की बारात चली तो बैंडवाले जो धुनें वे बजा रहे हैं वो नौशाद मियाँ की ‘रतन’ फ़िल्म की ही धुनें हैं.
नौशाद साहब की मौसीक़ी से उनकी फ़िलमों से और उनके नग़मों से तो सब वाक़िफ़ हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि वो एक अच्छे शायर और कहानीकार भी थे। दिलीप कुमार, नरगिस और निम्मी अभिनीत मशहूर फ़िल्म ‘दीदार’ की कहानी उन्होंने ही लिखी थी. ‘बैजूबावरा’ पर फ़िल्म बनाने का मुख्य विचार और प्लॉट उन्हीं का था.
उन्होंने कम लिखा है लेकिन बहुत ख़ूब लिखा है। कभी-कभी वो मुशायरों में शिरकत भी कर लिया करते थे। उनकी शायरी की पुस्तक ‘आठवाँ सुर’ प्रकाशित भी हुई थी.
'ये कौन खुली अपनी दुकाँ छोड़ गया है'...अपने एक शेर में ऐसा कहने वाले जाने-माने संगीतकार नौशाद पाँच मई 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए.
नौशाद उन संगीतकारों की कड़ी के शायद आख़िरी स्तंभ थे जिनकी धुनें हमेशा मौलिक रहीं. उन पर कभी किसी की नक़ल करने का ठप्पा नहीं लगा. पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया
मुलाहिज़ा फ़रमाइये उनकी लिखी ग़ज़लों के अशाअर:
दुनिया कहीं बनती मिटती ज़रूर है
परदे के पीछे कोई न कोई ज़रूर है
जाते हैं लोग जा के फ़िर आते नहीं कभी
दीवार के उधर कोई बस्ती ज़रूर है
मुमकिन नहीं कि दर्द - ए - मुहब्बत अयाँ न हो
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है
ये जानते हुए कि पिघलना है रात भर
ये शमा का जिगर है कि जलती ज़रूर है
नागिन ही जानिए इसे दुनिया है जिसका नाम
लाख आस्तीं मे पालिये डसती ज़रूर है
जाँ देके भी ख़रीदो तो दुनिया न आए हाथ
ये मुश्त - ए - ख़ाक कहने को सस्ती ज़रूर है
नौशाद झुक के मिल गई कि बड़ाई इसी में है
जो शाख़-ए-गुल हरी हो लचकती ज़रूर है
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ये कौन मेरे घर आया था
जो दर्द का तोहफ़ा लाया था
कुछ फ़ूल भी थे उन हाथों में
कुछ पत्थर भी ले आया था
अंधियारा रोशन रोशन है
ये किसने दीप जलाया था
अब तक है जो मेरे होंठों पर
ये गीत उसी ने गाया था
फ़ैला दिया दामन फ़ूलों ने
वो ऐसी ख़ुश्बू लाया था
नौशाद के सर पे धूप में भी
उसके दामन का साया था.
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और ये रहे चंद शे’र.....
अच्छी नहीं नज़ाकते एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
बस एक ख़ामोशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िन्दगी से सवालात कीजिये
नौशाद उनकी बज़्म में हम भी गए थे आज
कैसे बचें हैं जानो-जिगर तुमसे क्या कहें
ये गीत नए सुनकर तुम नाच उठे तो क्या
जिस गीत पे दिल झूमा वो गीत पुराना था.
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मेरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सेराब हो के शाद न हो रेहरवान-ए-शौक़
रस्ते में तश्नगी का समन्दर भी आएगा
दैर-ओ-हरम मे खाक उड़ाते चले चलो
तुम जिसकी जुस्तुजू में हो वो दर भी आएगा
बैठा हूँ कब से कूंचा-एक़ातिल में सरनिगूँ
क़ातिल के हाथ में कभी खंजर भी आएगा
सरशार हो के जा चुके यारान-ए-मयकदा
साक़ी हमारे नाम का साग़र भी आएगा
2. पहले तो डर लगा मुझे खुद अपनी चाप से
फिर रो दिया मैं मिल के गले अपने आप से
थी बात ही कुछ ऐसी कि दीवाना हो गया
दीवाना वरना बनता है कौन अपने आप से
रहता है अब हरीफ़ ही बनकर तमाम उम्र
क्या फ़ायदा है यार फिर एसे मिलाप से
आया इधर ख्याल उधर मेहव हो गया
कहने को था न जाने अभी क्या मैं आप से
हम और लगाएँगे पड़ोसी के घर में आग
भगवान ही बचाए हमें ऎसे पाप से
नौशाद रात कैसी थी वो महफ़िल-ए-तरब
लगती थी दिल पे चोट सी तबले की थाप से
...नौशाद साहब लखनऊ से बहुत प्यार करते थे ,जब अन्तिम बार लखनऊ आए थे, तो यहाँ बहुत कुछ बदला-बदला सा पाया था ,फिर भी अपने शहर की शान में एक ग़ज़ल कह गए थे-
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है,
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है ।
क्या जाने क्यों उड़ गए पंछी पेड़ों से,
भरी बहारों में गुलशन वीराना है ।
सारी बस्ती चुप की गर्द में डूब गयी,
शिकवा जो करता है वह दीवाना है ।
मेरी मंजिल शहर ऐ वफ़ा से आगे है,
तुमको तो दो चार कदम ही जाना है।
आपका दामन कल तक मेरा दामन था,
आज वह दिन ख्वाब है या अफसाना है।
रिंद जहाँ सब एक जाम से पीते थे ,
आज न वो मैख्वार न वो मैखाना है ।
आओ पहला जाम पियें नौशाद के नाम ,
जिसने ज़हर के घूँट को अमृत जाना है ..... ॥
Tuesday, March 9, 2010
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
औरत / कैफ़ी आज़मी
कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
औरत / कैफ़ी आज़मी
Wednesday, October 24, 2007
फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ गोरखपुरी - मैं उन चंद ख़ुश किस्मतों में हूँ जिन्होंने फ़िराक़ साहब को देखा भी था . और उन्हें बोलते हुए सुना भी था. इसका एहसास आज मेरी तरह उन सबको है जो अतीत में इस क़ीमती तजुर्बे से गुजर चुके हैं. पेशे से शायर न होते हुए भी मेरा जन्म उस जमींदार परिवार में हुआ था जो शायरी के कद्र्दान थे. गोरखपुर मेरा ननिहाल और बस्ती पिता के घर बचपन से मुशायरा और शायरो की मजलिस आज भी ज़हन में ताज़ा है .
फ़िराक़ की शायरी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
उनकी इस अज़मत का राज़ उस रिश्ते से है, जो गोरखपुर के एक कामयाब वकील मुंशी गोरख प्रसाद के घर पैदा होने के कारण उन्हें विरासत में मिला था.
फ़िराक़ ने पहली बार इस अज़ीम विरासत को अपने शब्दों की अजमत बनाया है और हुस्नो-इश्क़ की दुनिया में नए ज़मीन-आसमान को दर्शाया है.
फ़िराक़ गोरखपुरी 1896 में पैदा हुए. तालीम इलाहाबाद में पूरी की. कुछ साल पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया. जेल भी गए. बाद में इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के स्टाफ़ में शरीक हुए और यहीं से 1959 में रिटायर होकर निरालाजी के नगर इलाहाबाद के इतिहास का हिस्सा बन गए.
1896 से 1982 तक की इस जीवन-यात्रा में फ़िराक़ ने अपने पैरों से चलकर अपनी आँखों से देखकर पूरा किया. अपनी ज़िदंगी को उन्होंने अपनी शर्तों पर जिया. इन शर्तों के कारण वह परेशान भी रहे.
इन आए दिन की परेशानियों ने उनकी रातों की नींदे छीन लीं. परिवार होते हुए अकेला रहने पर मजबूर किया, एक मुसलसल तन्हाई को उनका मुक़द्दर बना दिया. लेकिन इन सबके बावजूद वह ज़िंदगी भरते और हक़ीक़तों में ख्वाबों के रंग भरते रहे, फ़िराक़ साहब को इश्क़ और मुहब्बत का शायर कहा जाता है.
लेकिन इश्क़ और मुहब्बत के शायर की ज़िंदगी में इन्हीं की सबसे ज़्यादा कमी थी. फ़िराक़ ने इस कमी या अभाव को अपनी शायरी की ताक़त बनाया है और वह कर दिखाया है जो आज भारतीय साहित्य का सरमाया है.
फ़िराक़ साहब बड़े शायर थे लेकिन निजी जीवन में उनके विचार पुरुष-प्रधान समाज की ग्रंथियों से मुक्त नहीं थे...शायद उनकी इसी कमज़ोरी ने उनकी गज़लों और रूबाइयों में वह स्त्री रूप उभारा है. जो उनसे पहले उर्दू शायरी में इतनी नर्मी और सौंदर्य के साथ कहीं नज़र नहीं आता है...
फ़िराक़ साहब ने ख़ुद लिखा है- "18 वर्ष की उम्र में मेरी शादी कर दी गई, मेरी बीवी की शक्लो सूरत वही थी, जो उन लोगों की थी, जिनसे मैं बचपन में भी दूर रहता था. वह अनपढ़ थी. इस शादी ने मेरी ज़िंदगी को एक ज़िंदा मौत बनाकर रख दिया."
ज़िंदगी में जो एक कमी सी है. यह ज़रा सी कमी बहुत है मियाँ. ये अंदाज़ थे फ़िराक़ साहब के .....
ग़ालिब ने बीवी होते हुए एक डोमनी को अपनाया और फ़िराक़ ने पत्नी को छोड़कर ख़्वाब सजाया- लेकिन दोनों की निजी कमज़ोरियों ने उनकी शायरी को नुक़सान नहीं पहुँचाया. फ़िराक़ की यही हुनरमंदी उनके बड़े होने की अलामत है.
फ़िराक़ की शायरी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
उनकी इस अज़मत का राज़ उस रिश्ते से है, जो गोरखपुर के एक कामयाब वकील मुंशी गोरख प्रसाद के घर पैदा होने के कारण उन्हें विरासत में मिला था.
फ़िराक़ ने पहली बार इस अज़ीम विरासत को अपने शब्दों की अजमत बनाया है और हुस्नो-इश्क़ की दुनिया में नए ज़मीन-आसमान को दर्शाया है.
फ़िराक़ गोरखपुरी 1896 में पैदा हुए. तालीम इलाहाबाद में पूरी की. कुछ साल पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया. जेल भी गए. बाद में इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के स्टाफ़ में शरीक हुए और यहीं से 1959 में रिटायर होकर निरालाजी के नगर इलाहाबाद के इतिहास का हिस्सा बन गए.
1896 से 1982 तक की इस जीवन-यात्रा में फ़िराक़ ने अपने पैरों से चलकर अपनी आँखों से देखकर पूरा किया. अपनी ज़िदंगी को उन्होंने अपनी शर्तों पर जिया. इन शर्तों के कारण वह परेशान भी रहे.
इन आए दिन की परेशानियों ने उनकी रातों की नींदे छीन लीं. परिवार होते हुए अकेला रहने पर मजबूर किया, एक मुसलसल तन्हाई को उनका मुक़द्दर बना दिया. लेकिन इन सबके बावजूद वह ज़िंदगी भरते और हक़ीक़तों में ख्वाबों के रंग भरते रहे, फ़िराक़ साहब को इश्क़ और मुहब्बत का शायर कहा जाता है.
लेकिन इश्क़ और मुहब्बत के शायर की ज़िंदगी में इन्हीं की सबसे ज़्यादा कमी थी. फ़िराक़ ने इस कमी या अभाव को अपनी शायरी की ताक़त बनाया है और वह कर दिखाया है जो आज भारतीय साहित्य का सरमाया है.
फ़िराक़ साहब बड़े शायर थे लेकिन निजी जीवन में उनके विचार पुरुष-प्रधान समाज की ग्रंथियों से मुक्त नहीं थे...शायद उनकी इसी कमज़ोरी ने उनकी गज़लों और रूबाइयों में वह स्त्री रूप उभारा है. जो उनसे पहले उर्दू शायरी में इतनी नर्मी और सौंदर्य के साथ कहीं नज़र नहीं आता है...
फ़िराक़ साहब ने ख़ुद लिखा है- "18 वर्ष की उम्र में मेरी शादी कर दी गई, मेरी बीवी की शक्लो सूरत वही थी, जो उन लोगों की थी, जिनसे मैं बचपन में भी दूर रहता था. वह अनपढ़ थी. इस शादी ने मेरी ज़िंदगी को एक ज़िंदा मौत बनाकर रख दिया."
ज़िंदगी में जो एक कमी सी है. यह ज़रा सी कमी बहुत है मियाँ. ये अंदाज़ थे फ़िराक़ साहब के .....
ग़ालिब ने बीवी होते हुए एक डोमनी को अपनाया और फ़िराक़ ने पत्नी को छोड़कर ख़्वाब सजाया- लेकिन दोनों की निजी कमज़ोरियों ने उनकी शायरी को नुक़सान नहीं पहुँचाया. फ़िराक़ की यही हुनरमंदी उनके बड़े होने की अलामत है.
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