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Tuesday, May 18, 2010

उनकी शादी में जब बैन्डबाजे वालों ने उन्ही की फ़िल्म की धुन बजाई

ये हिंदी फ़िल्मों का वो जमाना था कि जब मूक फ़िल्में लगती थीं तो परदे की बगल में बैठकर दृश्य की भावनाओं के अनुरूप साजिंदे साज़ बजाया करते थे. यह नौशाद साहब के बचपन के दिन थे. अन्य स्थानीय संगीतकारों के साथ लखनऊ के रॉयल सिनेमा हाल में लड्डन मियाँ हारमोनियम बजाते थे. यहीं से नौशाद साहब का संगीत प्रेम परवान चढ़ा. जो आख़िर जुनून तक जा पहुँचा.
इस जुनून की असली शुरूआत तो बाराबंकी क़स्बे के शरीफ़ दरगाह के उर्स के साथ हुई थी जहाँ उन्होंने सूफ़ी फक़ीर बाबा रशीद खां को बांसुरी बजा-बजा के गाते सुना था.
घर लौटे तो मोहल्ले की संगीत-साज़ों की एक दुक़ान में साफ-सफ़ाई करने की नौकरी कर ली. संगीत के प्रति उनकी लगन देखकर दुकान के मालिक ग़ुरबत अली ने एक हारमोनियम उन्हें दे दिया.
एक रिवायती परिवार में जन्में नौशाद के घर मे गीत-संगीत को लेकर कड़ा ऐतराज था। उनके अब्बा संगीत वगैरह के सख़्त विरोधी थे. उन्होंने वो हारमोनियम घसियारी मंडी वाले घर की पहली मंजिल से मोहल्ले की गली में उठाकर फेंक दिया. लेकिन संगीत से उनका प्रेम दिन पर दिन परवान चढ़ता गया, शुरुआती संघर्ष पूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।
आखिर 18 बरस की उम्र में नौशाद साहब घर छोड़ कर बम्बई पहुँचे और संगीत की दुनिया में उनका संघर्षशील सफ़र शुरू हुआ. नौशाद जब लखनऊ से भागकर मुम्बई पहुंचे थे तो उन्हे शुरुआती रातें ब्रॉडवे थिएटर के बाहर फुटपाथ पर बिताने पड़े थे,बाद मे इसी थिएटर मे उनकी कई फिल्मों ने सिलवर जुबली मनाई। चालीस के दशक में प्रेम नगर फिल्म से करियर की शुरुआत करने वाले नौशाद ने बहुत जल्दी ही अपने हुनर का लोहा मनवा लिया और फिर जो एक के बाद एक मधुर धुनो का जो सिलसिला चला तो कहां तक याद किया जाए. 'रतन' फ़िल्म से लेकर 'मुगले आज़म' तक और उसके बाद हिंदी फ़िल्मों के संगीत का पूरा सफ़र एक तरह से नौशाद साहब के संगीत का ही सुरीला सफ़र है.
क्या इस ऐतिहासिक सत्य को कभी भुलाया जा सकता है कि अमर गायक कंदुनलाल सहगल ने अपना अंतिम अमर गीत ‘जब दिल ही टूट गया अब जी कर क्या करेंगे’ गाया था, उसे नौशाद साहब द्वारा ही संगीतबद्ध किया गया था.
एक मजेदार प्रसंग जो आज भी लखनऊ में चर्चित है वो ये कि नौशाद साहब की जब शादी हुई तो वो भी लखनऊ के ही एक संगीतविरोधी घराने में. इसलिए ससुराल वालों को बताया गया था कि बम्बई में वे दर्जी की दुकान चलाते हैं.
शादी के समय तक उनकी कामयाब फ़िल्म ‘रतन’ आ चुकी थी और उसके गाने लोगों की जुबान पर थे. जब नौशाद साहब की बारात चली तो बैंडवाले जो धुनें वे बजा रहे हैं वो नौशाद मियाँ की ‘रतन’ फ़िल्म की ही धुनें हैं.
नौशाद साहब की मौसीक़ी से उनकी फ़िलमों से और उनके नग़मों से तो सब वाक़िफ़ हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि वो एक अच्छे शायर और कहानीकार भी थे। दिलीप कुमार, नरगिस और निम्मी अभिनीत मशहूर फ़िल्म ‘दीदार’ की कहानी उन्होंने ही लिखी थी. ‘बैजूबावरा’ पर फ़िल्म बनाने का मुख्य विचार और प्लॉट उन्हीं का था.
उन्होंने कम लिखा है लेकिन बहुत ख़ूब लिखा है। कभी-कभी वो मुशायरों में शिरकत भी कर लिया करते थे। उनकी शायरी की पुस्तक ‘आठवाँ सुर’ प्रकाशित भी हुई थी.
'ये कौन खुली अपनी दुकाँ छोड़ गया है'...अपने एक शेर में ऐसा कहने वाले जाने-माने संगीतकार नौशाद पाँच मई 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए.
नौशाद उन संगीतकारों की कड़ी के शायद आख़िरी स्तंभ थे जिनकी धुनें हमेशा मौलिक रहीं. उन पर कभी किसी की नक़ल करने का ठप्पा नहीं लगा. पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया
मुलाहिज़ा फ़रमाइये उनकी लिखी ग़ज़लों के अशाअर:

दुनिया कहीं बनती मिटती ज़रूर है
परदे के पीछे कोई न कोई ज़रूर है

जाते हैं लोग जा के फ़िर आते नहीं कभी
दीवार के उधर कोई बस्ती ज़रूर है

मुमकिन नहीं कि दर्द - ए - मुहब्बत अयाँ न हो
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है

ये जानते हुए कि पिघलना है रात भर
ये शमा का जिगर है कि जलती ज़रूर है

नागिन ही जानिए इसे दुनिया है जिसका नाम
लाख आस्तीं मे पालिये डसती ज़रूर है

जाँ देके भी ख़रीदो तो दुनिया न आए हाथ
ये मुश्त - ए - ख़ाक कहने को सस्ती ज़रूर है

नौशाद झुक के मिल गई कि बड़ाई इसी में है
जो शाख़-ए-गुल हरी हो लचकती ज़रूर है


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ये कौन मेरे घर आया था
जो दर्द का तोहफ़ा लाया था

कुछ फ़ूल भी थे उन हाथों में
कुछ पत्थर भी ले आया था

अंधियारा रोशन रोशन है
ये किसने दीप जलाया था

अब तक है जो मेरे होंठों पर
ये गीत उसी ने गाया था

फ़ैला दिया दामन फ़ूलों ने
वो ऐसी ख़ुश्बू लाया था

नौशाद के सर पे धूप में भी
उसके दामन का साया था.

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और ये रहे चंद शे’र.....


अच्छी नहीं नज़ाकते एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा


बस एक ख़ामोशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िन्दगी से सवालात कीजिये

नौशाद उनकी बज़्म में हम भी गए थे आज
कैसे बचें हैं जानो-जिगर तुमसे क्या कहें

ये गीत नए सुनकर तुम नाच उठे तो क्या
जिस गीत पे दिल झूमा वो गीत पुराना था.



आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मेरा घर भी आएगा

अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा

सेराब हो के शाद न हो रेहरवान-ए-शौक़
रस्ते में तश्नगी का समन्दर भी आएगा

दैर-ओ-हरम मे खाक उड़ाते चले चलो
तुम जिसकी जुस्तुजू में हो वो दर भी आएगा

बैठा हूँ कब से कूंचा-एक़ातिल में सरनिगूँ
क़ातिल के हाथ में कभी खंजर भी आएगा

सरशार हो के जा चुके यारान-ए-मयकदा
साक़ी हमारे नाम का साग़र भी आएगा

2. पहले तो डर लगा मुझे खुद अपनी चाप से
फिर रो दिया मैं मिल के गले अपने आप से

थी बात ही कुछ ऐसी कि दीवाना हो गया
दीवाना वरना बनता है कौन अपने आप से

रहता है अब हरीफ़ ही बनकर तमाम उम्र
क्या फ़ायदा है यार फिर एसे मिलाप से

आया इधर ख्याल उधर मेहव हो गया
कहने को था न जाने अभी क्या मैं आप से

हम और लगाएँगे पड़ोसी के घर में आग
भगवान ही बचाए हमें ऎसे पाप से

नौशाद रात कैसी थी वो महफ़िल-ए-तरब
लगती थी दिल पे चोट सी तबले की थाप से

...नौशाद साहब लखनऊ से बहुत प्यार करते थे ,जब अन्तिम बार लखनऊ आए थे, तो यहाँ बहुत कुछ बदला-बदला सा पाया था ,फिर भी अपने शहर की शान में एक ग़ज़ल कह गए थे-
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है,
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है ।
क्या जाने क्यों उड़ गए पंछी पेड़ों से,
भरी बहारों में गुलशन वीराना है ।
सारी बस्ती चुप की गर्द में डूब गयी,
शिकवा जो करता है वह दीवाना है ।
मेरी मंजिल शहर ऐ वफ़ा से आगे है,
तुमको तो दो चार कदम ही जाना है।
आपका दामन कल तक मेरा दामन था,
आज वह दिन ख्वाब है या अफसाना है।
रिंद जहाँ सब एक जाम से पीते थे ,
आज न वो मैख्वार न वो मैखाना है ।

आओ पहला जाम पियें नौशाद के नाम ,
जिसने ज़हर के घूँट को अमृत जाना है ..... ॥

11 comments:

Unknown said...

blog jagat me swagat
satat lekhan ke liye shubhkamnayen

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

36solutions said...

स्‍वागत

महामूर्खराज said...

एक सुंदर प्रस्तुति के साथ ब्लॉग का आगाज आपका हार्दिक अभिनन्दन
बस अब लिखते रहें

RADIO SWARANGAN said...

बहुत बढि़या अंजली जी,शुरूआत काफी अच्‍छी है, मेरी ओर से शुभकामनाएं।

jayanti jain said...

great

Anonymous said...

ये कौन मेरे घर आया था
जो दर्द का तोहफ़ा लाया था
धन्यवाद्

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

हँसते-हँसते उसका दीदार करा दिया....
बैठे-बिठाए उससे दो-चार करा दिया !!
हमने जब भी कहना चाहा कुछ गहरा
बेशाख्ते अपने हर्फों को नीचे गिरा दिया !!
हमको तो कुछ भी ना कहना था यहाँ उफ़
अंजलि,तुमने ये क्या-क्या कहला दिया ?

सागर नाहर said...

नौशाद साहब का एक और अशआर बहुत प्रसिद्ध है
अब भी साज़-ए-दिल में तराने बहुत हैं
अब भी जीने के बहाने बहुत है
गैर घर भीख ना मांगो अपने फन की
जब अपने घर में खजाने बहुत है

है दिन बदमज़ाकी के "नौशाद" लेकिन
अब भी तेरे फ़न के दीवाने बहुत हैं।

॥दस्तक॥,
गीतों की महफिल,
तकनीकी दस्तक

दुलाराम सहारण said...

नमस्‍कार,

राजस्‍थान से नित्‍य-प्रति अनेक चिट्ठे (ब्‍लॉग) लिखे जा रहे हैं। हम जैसे अनेक हैं जो उनको पढ़ना चाहते हैं। खासकर चुनिंदा ताजा प्रविष्ठियों को।
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सुझाव-सलाह आमंत्रित है।

सादर।

दुलाराम सहारण
चूरू-राजस्‍थान
www.dularam.blogspot.com

mridula pradhan said...

bahot achche.